तिनका नहीं उड़ा

क बार भगवती दुर्गा कि कृपा से देवताओ ने देवासुर  संग्राम में दैत्यों को पराजित कर दिया.देवता इस बात से अंजान थे कि भगवती के शक्ति के कारण ही उनकी विजय हुई है.वे इसे अपने बल पराक्रम की  जीत मानते हुए सभी लोको में अपनी शक्ति का बखान कर रहे थे.
                       देवताओ को अहंकार के नशे में चूर देख भगवती ने उन्हें सबक सिखाने का निश्चय
किया.वे यक्ष रूप में प्रकट हुई.उनका तेज  सूर्य के प्रकाश को भी कम कर रहा था.यक्ष रुपी देवी भगवती एक प्रकाश पुंज के रूप में थी.तेजमय यक्ष पर सर्वप्रथम देवर्षि नारद कि दृष्टि पड़ी.उन्होंने शीघ्रता से देवराज इन्द्र को इस अलौकिक पुंज के बारे में बताया,"देवेन्द्र, स्वर्ग से कुछ दूरी पर एक दिव्य यक्ष प्रकट हुआ है.उसमे से निकलने वाली अग्नि की  लपटे दसो दिशाओ को जलाने  के लिए उद्यत हो रही है.ऐसा दिव्य तेजोमय पुंज मैंने कभी नहीं देखा.अवश्य यह किसी असुर की  माया है."
                       नारद जी की  बात सुनकर इन्द्र सोच में पड़ गए.उन्होंने उसी समय अग्नि देव को प्रकाश पुंज के विषय में जानने के लिए भेजा.
                      अग्नि देव यक्ष के पास पहुचे  और गर्व से भरकर बोले,"हे मायावी.मै  अग्नि देव हु.मुझमे जगत को पल भर में भस्म कर देने कि शक्ति है.मेरी तीव्र लपटों से सृष्टि में हाहाकार मच जाता है.अतः उचित यही है कि तुम अपने बारे में साफ़ साफ़ बता दो, अन्यथा मै तुम्हे अभी भस्म कर दूंगा!"
                       अग्निदेव के गर्वयुक्त वचन सुनकर यक्ष ने उनके सामने एक तिनका रखा और कहा,"अग्निदेव, मै तुम्हारा पराक्रम देखना चाहता हु.यदि तुममे जगत को भस्म करने कि शक्ति है तो जरा इस तिनके को जलाकर दिखाओ.इसके बाद मै तुम्हे अपने बारे में सब कुछ बता दूंगा."
                        गर्वीले अग्निदेव ने तिनके को जलाने के लिए तीव्र ज्वाला प्रकट कि.परन्तु अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी वह तिनके को नहीं जला सके.अंत में लज्जित होकर लौट आए और इन्द्र देव को सारी बात बताई.अग्निदेव कि असफलता ने इंद्र  को विचलित कर दिया.उन्होंने वायुदेव को भेजा.
                       यक्ष के समक्ष पहुचकर वायुदेव ने भी गर्वयुक्त शब्दों में अपना परिचय दिया.यक्ष अपनी बात दोहराते हुए बोला,"वायुदेव ! तुम्हारे सामने यह छोटा सा तिनका पड़ा है.यदि इसे अपनी शक्ति से उड़ा दोगे तो मै तुम्हारी शक्ति के सामने नतमस्तक हो जाऊंगा.परन्तु यदि तुम यह  नहीं कर सकते तो अभिमान त्याग कर देवराज इन्द्र के पास लौट जाओ."
                      वायुदेव ने उपहास पूर्वक एक फूक मारी, परन्तु तिनका नहीं उड़ा .इस बार उन्होंने पूरी शक्ति लगाकर कोशिश की .लेकिन तिनका अपने स्थान से हिला तक नहीं.अंत में वायुदेव भी लज्जित होकर लौट गए.तब देवराज इन्द्र स्वयं यक्ष के पास गए.उन्हें आते देख कर यक्ष उसी पल अंतर्धान हो गया.यक्ष के अदृश्य हो जाने से इन्द्र को आत्मग्लानी हुई.तभी एक आकाशवाणी गूंजी,"देवेन्द्र, तुम भगवती के मायाबीज मंत्र का जाप करो."
इन्द्र ने मंत्र का जाप शुरू कर दिया जप करते करते अनेक दिन बीत गए.
                     एक दिन चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में नवमी तिथि के अवसर पर इन्द्र के सामने एक  दिव्य तेज प्रकट हुआ, जिसमे से देवी भगवती प्रकट हुई,उन्होंने देवी भगवती को प्रणाम किया और यक्ष के विषय में पूछा 
                    भगवती बोली,"वत्स, यह जगत मेरी ही माया के वशीभूत है.इसके कण कण में मेरी ही शक्ति विद्यमान है.परन्तु अभिमान वश ये सब भूल कर तुम भोग-विलास में डूब गए.इसलिए तुम्हे सन्मार्ग पर लाने के लिए मेरा तेज ही यक्ष रूप में प्रकट हुआ था.अतः अब तुम भाग विलास त्याग कर धर्मयुक्त  राज करो."
                    इन्द्र ने भक्ति भाव से देवी भगवती कि पूजा-उपासना की  और स्वर्ग में लौट आए.

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